मंगलवार, 10 अगस्त 2010

हजरे अस्वद (काला पत्थर) कि हक़ीक़त

चूँकि मेरा यह ब्लॉग केवल अंतिम रसूल मुहम्मद सल्लल्लाहो अलैहे वसल्लम के जीवन के सत्य तथ्यों के बयान पर आधारित है अतः मैं किसी भी अतिरिक्त लेख से परहेज़ करता हूँ एवं कोशिश यह होती है कि आप के जीवन के उन्हीं तथ्वों को बयान करूँ जो सही रवायतों पर आधारित हैं लेकिन कुछ समय पूर्व मैंने हजरे अस्वद एवं काबा के बारे में कुछ नकारात्मक विचार वाले व्यतियों जिनका ज्ञान सरल तथा गलत विचारों एवं सोंच से भरपूर है के लेख तथा उनपर कमेंट्स पढ़ा इन आलेखों में ख़ास तौर से हजरे अस्वद के बारे में जो बकवास कि गई है वोह लेखक के मानसिक बिमारी का उदहारण है काबा तथा हजरे अस्वद का तअल्लुक़ किसी सनातन धर्म अथवा शिव या शिव लिंग से क्या हो सकता है ?दर असल लेखक ने झूटे इतिहास कारों की झूटी बातों पर भरोसा करके जिनका कोई अस्तित्व नहीं है एक अफसाना तराश कर लेख का रूप दे दिया है . ऐसे लोग जिन का ज्ञान सरल तथा कमज़ोर होता है जो सत्य असत्य में अंतर नहीं कर सकते और न ही करने की कोशिश करते हैं झूटी बातों को इतिहास का रूप देनें वाले इतिहासकारो की हर सच्ची झूटी बातों को सत्य समझ कर उसपर ईमान ले आते हैं, ठीक उस अबोध बच्चे की तरह जो दादी माँ की परियों तथा देवों की कथाओं को सच समझ बैठता है और दिनों रात उन्हीं के सपने देखा करता है
चूँकि हमारे इस्लाम धर्म में किसी भी धर्म का ठठा तथा उस से सम्बंधित किसी चीज़ का मजाक उड़ाना निषेध है इसलिए मैं सनातन अथवा शिव एवं शिवलिंग की सत्यता अथवा असत्यता के बारे में कुछ नहीं कहूंगा हाँ इतना ज़रूर है कि हमारे धर्म के बारे में जो असत्य तथा अन्याय पूर्ण बातें कही जाती हैं उनका उत्तर अवश्य दिया जाए! काबा कि हकीकत के बारे में मैं इस से पूर्व लिख चूका हूँ तथा मौक़ा मिला और अल्लाह ने चाहा तो मक्का फतह करने के बयान के समय लिखूंगा
अब निम्न में हजरे अस्वद के बारे में जो सत्यता है उसे बयान कर रहा हूँ इस यकीन के साथ कि जितना ब्यान कर रहा हूँ केवल उतना ही सत्य तथा कुरआन (इश्वर के बयान) एवं हदीस (नबी की बातों तथा कार्यों) से साबित है जिन्हें आप सल्लल्लाहो अलैहे वसल्लम के प्यारे साथियों रज़ीअल्लाहोअन्हुम ने देखा , सुना ,समझा तथा ब्यान किया है बाक़ी सब बे सर पैर की बातें एवं अफ़साना है , अल्लाह हमें सही सोंच दे
हजरे अस्वद क्या है ? :  हजरे अस्वद काबा के दक्षनी कोने में मौजूद लाली मिला हुआ एक काला पत्थर है जो ज़मीन से डेढ़ मीटर की उंचाई पर काबा की दिवार में लगा हुआ है. यहाँ यह बताते चलें कि शुरू में हजरे अस्वद का आकार तीस सेंटी मीटर के करीब था लेकिन अनेक घटनाओं की वजह से उस में परिवर्तन आता गया तथा अब अनेक साईज़ के केवल आठ छोटे छोटे टुकड़े बचे हैं जिन में सब से बड़ा छोहारे के आकार का है , यह तमाम टुकड़े करीब ढाई फिट के कुतर में जड़े हुए हैं जिनके किनारे चांदी के गोल चक्कर घेरे हुए है. इस की हिफाज़त के लिए सब से पहले जिसने उसे चांदी से गच दिया वो अब्दुल्लाह बिन जुबैर रज़ियल्लाहो अन्हो हैं फिर बाद के राजाओं महाराजाओं ने भी उस में सोने तथा चांदी मढ़वाये सब से अंत में सउदी अरब के राजा शाह सऊद ने इसे खालिस चांदी से मढ़वाया.
इस्लामी ईतिहास में हजरे अस्वद से एक नेहायत ही दुखद घटना जुडी हुई है, अबू ताहिर क़र्मोती (जिस का सम्बन्ध क्रामेता नामी शीई धर्म से था ) नाम के एक आक्रमणकारी ने सन ३१७ हिजरी में मक्का पर आक्रमण करके मक्का की पवित्रता को भंग कर दिया एवं काबा की बेहुरमती की एवं हाजियों को मार कर ज़मज़म के कुंवे में डाल दिया,तथा ज़मज़म के कुब्बे को गिरा दिया एवं काबा की दिवार को गिरा दिया तथा काबा की चादर को फाड़ कर अपने साथिओं में बाँट दिया एवं हजरे अस्वद को निकाल कर अपने साथ ले गया . बाईस वर्ष बाद सन 339 हिजरी में फिर दोबारा उसको उसके स्थान पर लौटा दिया गया

हजरे अस्वद कहाँ से आया ? : अल्लाह के रसूल सल्लल्लाहो अलैहे वसल्लम ने फरमाया (१) " हजरे अस्वद अल्लाह तआला ने ज़मीन पर स्वर्ग से उतारा है यह दूध से अधिक सफ़ेद था बनू आदम (मनुष्य ) के पापों ने इसे काला कर दिया है " (तिरमिज़ी एवं सहिहुलजामे /क्रमांक : ६७५६) (२) " रुक्न (हजरे अस्वद ) तथा मक़ाम जन्नत के नीलमों में से एक नीलम है अल्लाह तआला ने इस के प्रकाश को समाप्त कर दिया है अगर इसके प्रकाश को ख़तम नहीं करता तो यह पूरब और पश्चिम को रौशन कर देते " (मुस्नद अहमद , तिरमिज़ी एवं सहिहुलजामे /क्रमांक : १६३३) (३) हजरे अस्वद जन्नत से उतरा है जो बर्फ से ज्यादा सफ़ेद था जिसे आदमी के पापों ने काला कर दिया है " (सिलसिला सहीहा)

हजरे अस्वद किस युग में लगा ? : हजरे अस्वद अल्लाह तआला ने इब्राहीम अलैहिस्सलाम के पास जिब्रील अलैहिसलाम के हाथो भेजा ताकि वोह तवाफ़ करने वालों (काबा का चक्कर लगाने वालों) के लिए काबा के दक्षिणी किनारे में लगा दें ,जो काबा का तवाफ़ करने वालों के लिए एक निशानी हो और वोह यहीं से अपना तवाफ़ आरम्भ करें तथा यहीं पर समाप्त करें
हुआ यूँ कि इब्राहीम अलैहिस्सलाम जब काबा का निर्माण कर रहे थे तथा पत्थर जोड़ते जोड़ते उस जगह तक पहुंचे जहां पत्थर लगाना था तो अपने पुत्र इस्माइल अलैहिस्सलाम जो निर्माण में उनकी सहायता कर रहे थे एवं पत्थर ढो कर ला रहे थे से कहा कि एक ऐसा पत्थर लाओ जिसे मैं इस स्थान पर लगा दूँ ताकि तवाफ़ करने वाले यहीं से अपने तवाफ़ का आरम्भ करें अतः इस्माइल अलैहिस्सलाम पत्थर लाने गए जब वापस आये तो देखा कि एक पत्थर मौजूद है , पूछा : पिताजी यह पत्थर कहाँ से आया ? तो उन्हों ने कहा कि जिब्रील अलैहिस्सलाम ने लाकर दिया है

हजरे अस्वद के फायदे तथा उसकी महत्ता : निम्न में हम हजरे अस्वद के कुछ फायदे एवं महत्ता के बारे में सहीह हदीसों की रोशनी में चंद बातें बयान करते हैं :(१) "यह स्वर्ग से उतरा हुआ पत्थर है"(सहीहुलजामे : क्रमांक /३१७५) (२) काबा में तवाफ़ जैसे महत्वपूर्ण अरकान को अदा करने के लिए अलामत और निशानी है (३) उसको चूमने से मोमिन के पाप झड़ जाते हैं (४) " अल्लाह तआला हजरे अस्वद को क़यामत के दिन लाएगा तो उसकी दो आँखें होंगी जिनसे देखेगा और ज़बान होगी जिससे बोलेगा और हर उस शख्स की गवाही देगा जिस ने उसका हक़ीक़ी इस्तेलाम किया (छुआ ) होगा " ( इब्नेमाजा एवं सहीहुलजामे क्रमांक /५३४६) (५) " अगर हजरे अस्वद को जाहिलियत की गंदगियाँ नहीं लगी होती तो उसे कोई भी बीमार छूता तो वोह ठीक हो जाता और धरती पर इसके अतिरिक्त स्वर्ग कि कोई चीज़ नहीं है" (सहीहुलजामे क्रमांक /5334) (6) उसके चूमने अथवा छूने में रसूलुल्लाह सल्लल्लहोअलैहेवसल्लम की सुन्नत का पालन है जो हर मुसलमान के लिए अनिवार्य है तथा इसके बगैर कोई मुसलमान मुसलमान नहीं रहता और इसके बगैर किसी भी मुसलमान की कोई इबादत एवं पूजा इश्वर के यहाँ अस्वीकार्य है

क्या मुसलमान हजरे अस्वद की पूजा करते हैं ? : हजरे अस्वद से सम्बंधित जो भी अमल मुसलमान करते हैं उनका सीधा सम्बन्ध अल्लाह और उसके रसूल सल्लल्लाहो अलैहे वसल्लम से है कोई भी कार्य जो सुन्नत से साबित नहीं उनका करना मना है इसीलिए उमर रज़ियल्लाहो अन्हो ने जब हजरे अस्वद को चूमा तो कहा :" मैं जानता हूँ कि तू केवल एक पत्थर है न तू नफा पहुंचा सकता है और न ही हानि अगर मैं ने अल्लाह के रसूल सल्लल्लाहो अलैहे वसल्लम को तुझे चुमते हुए न देखा होता तो तुझे नहीं चूमता " इमाम तबरी फरमाते हैं कि : " उमर रज़ियल्लाहो अन्हों ने ऐसा इसलिए किया क्योंकि लोगों ने कुछ ही दिनों पहले बुतों कि पूजा को छोड़ा था तथा आप को डर हुआ कि कहीं यह लोग ये न समझने लगें कि पत्थर को चूमना उसकी ताजीम करना है जैसा कि इस्लाम से पूर्व अरब के लोग किया करते थे अतः उन्हों ने लोगों को यह बताना चाहा कि हजरे अस्वद का चूमना केवल अल्लाह के रसूल सल्लल्लाहो अलैहे वसल्लम के कार्यों का अनुसरण है इसलिए नहीं कि उसके अन्दर कोई नफा तथा हानि की कोई शक्ति है " यहाँ पता चला कि हजरे अस्वद को चूमना कोई पूजा या शर्द्दा नहीं है बल्कि ऐसी मुहब्बत और प्यार है जो अल्लाह के रसूल की सुन्नत के मुताबिक है , उदहारण के तौर पर : कोई आदमी जब अपनी पत्नी या संतान को चूमता है तो इसका अर्थ यह नहीं होता कि वोह उनकी पूजा करता है अर्थात यह एक प्रेम है जो खून के रिश्ते के लिए उमड़ता है , इसी तरह हजरे अस्वद को चूमना या छूना एक प्रेम है जिसको करने का आदेश अल्लाह और उसके रसूल ने दिया है यह पद तथा यह स्थान दुनिया के किसी दुसरे पत्थर को बिलकुल प्राप्त नहीं चाहे उसका मूल्य कितना ही उंचा क्यों न हो , और लोग उसे कितना ही ऊँचा दर्जा क्यों न दे दें





काबा का नवीकरण तथा मध्यस्थता की कहानी

जब आप की आयु पैंतीस वर्ष की थी उस समय एक बड़ा सैलाब आया था जिस से काबा की दीवार मे दरार पड़ गयी तथा इस से पश्चात आग लगने से भी उस की दीवारों को नुक़सान पहुँचा था जिस के उस की दीवारें कमज़ोर हो गयीं थी अतः कुरैश ने उस के नव निर्माण का निर्णय लिया अथवा यह तय किया की इस के निर्माण में शुद्ध , हलाल एवं पाक कमाई के धन का प्रयोग करेंगे एवं बदकारी , चोरी , ब्याज और लूट खसूट के धन का प्रयोग नहीं किया जाएगा
जब काबा की दीवारों को तोड़ने का समय आया तो सब अल्लाह की सजा से डरने लगे कोई भी उसकी दिवार को तोड़ने के लिए तैयार नही था , तो उन से मोगिरा के पुत्र वलीद ने कहा कि अल्लाह निर्माणकारों का विनाश नहीं करता ,फिर स्वयं आगे बढ़ा तथा दीवारों को तोड़ने लगा ,फिर सब ने हिम्मत जुटा कर तोड़ने में उस का साथ दिया, फिर जब यह लोग इब्राहीम अलैहिस्सलाम कि डाली हुई बुन्याद तक पहुंचे तो वहाँ से निर्माण कार्य आरंभ किया तथा निर्माण के लिए हर कबीला को एक भाग दे दिया गया. इस निर्माण कार्य में बड़े बड़े लोगों ने भाग लिया ,वोह लोग खुद अपने कन्धों पे पत्थर ढोते , अल्लाह के रसूल सल्लल्लाहो अलैहे वसल्लम एवं आप के चाचा अब्बास भी उन लोगों के संग पत्थर ढोते . जिस कारीगर ने काबा का निर्माण किया उसका नाम बाकूम रूमी था
इस बीच ऐसा हुआ कि हलाल(वैध) धन कम पड़ जाने से वोह लोग इब्राहीम अलैहिस्सलाम की बुन्यादों के बराबर दिवार खड़ी न कर सके , अतः उत्तर सिम्त से छः गज निकाल दिया और उस पर एक छोटी दिवार बना दी ताकि पहचान लिया जाए कि दिवार के अन्दर का भाग काबा में दाखिल है इस खाली भाग को हिज्र तथा हतीम कहा जाता है . और दरवाज़ा ज़मीन से उंचा कर दिया ताकि काबा में वही आदमी दाखिल हो सके जिस को इस कि इजाज़त दी जाए
जब वोह लोग हजरे अस्वद (काला पत्थर) तक पहुंचे तो हर सरदार कि ख्वाहिश थी कि हजरे अस्वद को उस कि जगह रखने का महत्वपूर्ण कार्य उसके कर कमलों द्वारा संपन्न हो अतः इस बात को लेकर उनमें विवाद तथा झगडा पैदा हो गया और चार पांच दिनों तक काम ठप पड़ गया
करीब था कि खुनी जंग छिड जाए लेकिन खालिद बिन वलीद का चाचा मोगिरा के पुत्र अबू ओमैया मख्ज़ुमी ने जो कुरैश में सब से अधिक आयु का था नेहायत ही बुधीमानी से इस का समाधान निकाल लिया उस ने यह प्रस्ताव रखा कि इस समस्या के समाधान के लिए उस व्यक्ति को अपना न्यायाधीश स्वीकार करेंगे जो सब से पहले बनी शैबा नामी दरवाज़ा से मस्जिद में प्रवेश करेगा सब ने उस कि इस राय को स्वीकार कर लिया तथा इसी पर सहमत हो गए, अल्लाह का करना ऐसा हुआ कि सब से पहले नबी कारीम सल्लल्लाहो अलैहे वसल्लम ने उस दरवाज़ा से प्रवेश किया . जब लोगों ने आप को प्रवेश करते देखा तो कहने लगे यह तो "अमीन " आ गए हम इनके फैसले से संतुस्ट हैं यह मुहम्मद हैं . फिर आप ने एक चादर मंगाई तथा हजरे अस्वद को उसके बीच में रख दिया फिर सब को हुक्म दिया कि सब कपडे का एक एक किनारा पकड़ ले और उसे उठाये ,फिर सब ने मिल कर उसे उठाया और जब हजरे अस्वद के स्थान पर पहुंचे तो आप ने उसे अपने हाथ से उसकी पहली जगह पर रख दिया यह एक ऐसा उपयुक्त एवं न्यायपूर्ण समाधान था जिसे सब ने खुशदिली से आदर के साथ स्वीकार किया

शनिवार, 7 अगस्त 2010

खदीजा रज़ियल्लाहो अन्हा से आप सल्लल्लाहो अलैहे वसल्लम की औलाद

खदीजा रज़ियल्लाहो अन्हा से आप सल्लल्लाहो अलैहे वसल्लम की जो औलाद पैदा हुई उन के नाम निम्न हैं : क़ासिम फिर ज़ैनब फिर रोक़ैया फिर उम्मे कुलसूम फिर फ़ातिमा फिर अब्दुल्लाह  इन्हीं का उप नाम तैयब व ताहिर था
आप सल्लल्लाहो अलैहे वसल्लम के सारे पुत्र बचपन में ही गुज़र गये तथा पुत्रियाँ नबुवत का ज़माना पाईं और इस्लाम लाईं तथा हिजरत(आप्रवासन) किया फ़ातिमा रज़ियल्लाहो अन्हा  के अलावा आप की सारी बेटियों का देहांत आप के जीवन में ही हो गया फ़ातिमा रज़ियल्लाहो अन्हा आप सल्लल्लाहो अलैहे वसल्लम के देहांत के बाद छः महीने तक जीवित रहीं

खदीजा रज़ियल्लाहो अन्हा से आप सल्लल्लाहो अलैहे वसल्लम का विवाह

खदीजा रज़ियल्लाहो अन्हा एक उत्तम वंश वाली,अती सुंदर तथा धनवान स्त्री थीं ,जाहिलियत के युग( इस्लाम धर्म से पहले के समय ) में उन्हें ताहेरा के नाम से पुकारा जाता था जिस का मतलब है स्वक्ष् तथा पवित्रता वाली. इस से पूर्व इनकी दो शादियाँ हो चुकी थीं पहली शादी आयेज़् के पुत्र अतीक़ से, जिन से उनको एक पुत्री हुई थी इनके देहांत के बाद अबूहाला तमिमी से जिन से उनको हिंद बिन हिंद पैदा हुए जो सहाबी बन कर बदर की लड़ाई में शामिल हुए एवम् उनसे ज़ैनब नाम की एक लड़की भी पैदा हुई थी तथा हाला की आप ने परवरिश की
अबू हाला की मृत्यु के उपरांत बहुत से बड़े तथा धनवान लोगों ने उनको विवाह का आमांतरण दिया लेकिन उन्होंने सब को अच्छे तरीक़े से टाल दिया
खदीजा ने आप सल्लल्लाहो अलैहे वसल्लम की अमानत एवं सच्चाई को देखा तथा मयसरा ने सफ़र के दौरान आप सल्लल्लाहो अलैहे वसल्लम के शिष्टाचार तथा मोजज़ा ( अपसामान्य आदतों ) का वर्णन किया तो उन से काफ़ी पर्भावित हुईं तथा उनके दिल में आप सल्लल्लाहो अलैहे वसल्लम से विवाह करने की इक्षा पैदा हुई अतः उन्होंने अपने दिल की बात अपनी सहेली मुनिया की बेटी नफीसा से कही जो आप सल्लल्लाहो अलैहे वसल्लम के पास गयीं तथा खदीजा से शादी करने की बात की आप सल्लल्लाहो अलैहे वसल्लम ने उसे अतिशीघ्र क़बूल कर लिया तथा अपने चाचाओं से इस संबंध में बात की तो अबू तालिब तथा हमज़ा आदि खदीजा के चाचा असद के पुत्र अम्र से मिले और उनको अपने भतीजे के लिए विवाह का आमंत्रण दिया जिसे उन्हों ने स्वीकार कर लिया आप सल्लल्लाहो अलैहे वसल्लम के चाचा अबू तालिब ने आप सल्लल्लाहो अलैहे वसल्लम का निकाह बनू हाशिम तथा क़ुरैश के बड़े लोगों की उपस्तिथी में बीस उंटनी मोहर के बदले में कर दिया
यह विवाह आप सल्लल्लाहो अलैहे वसल्लम के शाम से वापसी के दो महीने उपरांत हुई थी उस समय आप सल्लल्लाहो अलैहे वसल्लम की आयु पच्चीस वर्ष थी तथा खदीजा की आयु चालीस वर्ष की थी
खदीजा जब तक जीवित रहीं आप सल्लल्लाहो अलैहे वसल्लम ने कोई दोसरी शादी नहीं की अल्लाह के रसूल सल्लल्लाहो अलैहे वसल्लम की इब्राहीम के सेवा सारी औलाद इन्हीं से पैदा हुई इब्राहीम मारिया क़िबतिया से थे

मंगलवार, 3 अगस्त 2010

खदीजा के व्यापार के लिए शाम की यात्रा

खोवैलिद की पुत्री खदीजा रज़ियल्लाहो अन्हा क़बीला क़ुरैश में सम्मानित तथा धन दौलत के हिसाब से उच्च स्थान पर थीं, व्यापारियों को मज़दूरी देकर अपना सामान व्यापार के लिए दूसरे देशों में भेजा करतीं, अल्लाह के रसुल सल्लल्लाहो अलैहे वसल्लम की सत्यता एवम् ईमानदारी के बारे में भी बहुत कुछ सुन रखा था, अतः उन्हों ने आप को बुला कर दोसरों से अधिक उजरत पर अपने सामान मे व्यापार की पेशकश की अतः आप खदीजा के गुलाम मैसरा के संग उनका माल लेकर शाम की यात्रा पर निकले और उसके अंदर व्यापार किया तथा व्यापार में खूब ज़्यादा लाभ हुआ, इस से पहले इतना लाभ नहीं हुआ था , व्यापार के उपरांत आप मक्का वापस आए और खदीजा को उनकी अमानत लौटा दी
खदीजा रज़ियल्लाहो अन्हा के गुलाम मैसरा ने उनको अल्लाह के रसूल सल्लल्लाहो अलैहे वसल्लम की सत्यता , अमानत दारी एवम् आप के अच्छे चरित्र के बारे में बताया तो ऊन के दिल में आप से विवाह की इक्षा पैदा हुई तथा आप को विवाह का आमंतरण भेजा

व्यावहारिक जीवन की शुरुआत

नबी करीम सल्लल्लाहो अलैहे वसल्लम अनाथ पैदा हुए थे एवम् आप को अपने पिता से वरासत में केवल पाँच ऊँट , बकरियों का एक रेवड़ तथा एक हबशी लौंडी मिली थी जिस का नाम बर्का तथा उपनाम उम्मे अयमन था जिन्हों ने आप की परवरिश में अहम भूमिका अदा की थी ,फिर आप हलीमा सादिया के पास बानू साद पहुँच गये , जब चलने फिरने लगे तथा छोटे मोटे काम करने लगे तो अपने दूध शरीक भाई के साथ बकरियाँ चराने लगे और जब अपनी माता के पास मक्का वापस आए , और कुछ बड़े हुए तो आजीविका कमाने के लिए चन्द पैसों के बदले मक्का वालों की बकरियाँ चराने लगे , ताकि अपने चाचा अबू तालिब की मदद कर सकें , अबू हुरैरा रज़ियल्लाहो अनहो का बयान है कि आप ने फ़रमाया : आल्लाह तआला ने जब भी कोई नबी भेजा तो उसने बकरियाँ चराई . सहाबा कराम ने पूछा : और आप ? तो फ़रमाया : हाँ मैं भी चन्द सिक्कों के बदले मक्का वालों की बकरियाँ चराया करता था
फिर जब जवानी को पहुँच गाए तो व्यापार करना शुरू किया , आप अपना व्यापार अबू साएब के बेटे साएब के साथ करते जो बेहतरीन पार्टनर थे , आप लेन देन मे अमानत दारी , सत्यता एवम् पाकीज़गी का उदाहरण थे, आप समस्त सार्वजनिक जीवन में इन्हीं सिद्धांतों पर चलते रहे यहाँ तक कि आप को अमीन कहा जाने लगा